"फिर वही रात थी कुछ गुम सी
फिर वही सफर था कुछ अकेलेपन का
मैं चला कुछ दूर अपने साये से डरा डरा
लड़खड़ाते कदमों की आहट
मेरे ही कानों में आन गिरी!!
मंज़र कुछ यूँ अंधेरे का
मेरे सामने था कुंडली लगाए
बस कोई अपना वहाँ से गुजरे
मैं भी था ऐसी ही आस लगाए!!
इस बेगाने शहर में ना जाने क्यों अक्सर लोग मिला करते हैं
कुछ अपने ही खो जाते हैं गैरों को अपना करते करते....."
फिर वही सफर था कुछ अकेलेपन का
मैं चला कुछ दूर अपने साये से डरा डरा
लड़खड़ाते कदमों की आहट
मेरे ही कानों में आन गिरी!!
मंज़र कुछ यूँ अंधेरे का
मेरे सामने था कुंडली लगाए
बस कोई अपना वहाँ से गुजरे
मैं भी था ऐसी ही आस लगाए!!
इस बेगाने शहर में ना जाने क्यों अक्सर लोग मिला करते हैं
कुछ अपने ही खो जाते हैं गैरों को अपना करते करते....."
Comments
Post a Comment