घर की उन
गलियों में कदम
रखे मुझे एक
अरसा हो गया,
मानो के जैसे
खफा सी हों
म ही से
वो...
कुछ लोग तो
बेवजह यूँ ही
हमें बदनाम करते
हैं,
हमारी अहमियत तो उन से पूछ ग़ालिब जो
हम पर जान
छिड़का करते हैं।
मैं तुझसे अब कुछ
नहीं मांगता ऐ
खुद,
तेरी देकर चीन
लेने की आदत
अच्छी नहि।
ज़मीर जाग ही
जाता है अगर
ज़िंदा हो इक़बाल,
कभी गुनाह से पहले,
कभी गुनाह के
बाद।
मैं वो दरिया
हूँ के हर
बूँद भँवर है
जिसकी,
अच्छा किया के
किनारा कर लिया
तुमने।
दिन गुज़र से गए ऐ ग़ालिब मुझे कुछ लिखे,
ऐसा लगता के कागज़ जैसे भर से गए हों किताब के।
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