वो शाम भी कुछ हसीं थी, घर से जब चले थे मंज़िल को हासिल करने।
सभी के चहरे पर एक विश्वास सा था,
मालूम नहीं था के हक़ीक़त से बिना रूबरू हुए कुछ हासिल नहीं होता।
दस्तक दिए उसने मेरी चौखट पे,
अच्छा ही किया कि किनारा कर लिया,
कम्बख़्त फरमान लेकर आया था मेरा।
सभी के चहरे पर एक विश्वास सा था,
मालूम नहीं था के हक़ीक़त से बिना रूबरू हुए कुछ हासिल नहीं होता।
दस्तक दिए उसने मेरी चौखट पे,
अच्छा ही किया कि किनारा कर लिया,
कम्बख़्त फरमान लेकर आया था मेरा।
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